कुमार कौशलेन्द्र
पिछले दिनों मेरी मुलाकात झारखंड की सियासत में बवाल और तख्ता पलट का कारण बने हाट गम्हरिया-चाईबासा पथ पर एक बालक से हुई. मुश्किल से 5 साल का है बालक. चिथड़े से आधा-अधूरा ढका तन किन्तु आत्मविश्वास से लबरेज।
हाट गम्हरिया-चाईबासा पथ पर आप भी मिल सकते हैं सरकार की घोषणाओं और व्यवस्था को मुंह चिढ़ाते नन्हें शिल्पकार से. इल्लीगढढा गांव का वह नन्हा सा विश्वकर्मा रेलवे फाटक के पास आपको भी मिल जायेगा. उस सरीखे अन्य भी मिलेंगे।
स्वाभाविक है आप सोच रहे होंगे कि ये बालक है कौन? क्यों आज बेबाक आलेख का नायक बन बैठा है?
सैकड़ों डब्लू- बब्लू और मंगरा-बुधुआ सड़क पर मिलते रहते हैं. तो फिर एक बालक विशेष के प्रति इतना अनुराग क्यों?
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हाटगम्हरिया-चाईबासा सड़क किनारे बसे इल्लीगढढा गांव के इस नन्हें अभियंता की चर्चा इसलिए क्योंकि झारखंड के रहनुमाओं को उसकी नियत पर फक्र होना चाहिए।
मुझे भी उम्मीद और सकारात्मकता से लबरेज बालक के उद्यम पर फक्र हुआ . साथ ही उसके तरीके की फ़िक्र भी हुई और मैं रूक गया उसके पास.
उसने कहा- पैसा दो।
मैंने पूछा- क्यों भाई,किस बात के पैसे?
बालक बोला- मैंने गड्ढे भरे हैं . सड़क दुरूस्त कर रहा हूं ,पैसा दो।
थोड़ी देर तक मैं खो सा गया. एक पल तो मुझे उस बच्चे में रामसेतु निर्माण से जुड़ी नन्ही गिलहरी की झलक दिखाई देने लगी ,अगले ही पल बाल रूप में माउंटेन मैन दशरथ मांझी दिखने लगे।
उसने दोहराया – पैसा दो… गड्ढा भरा हम।
मैंने पूछा – नाम क्या है?
वो बोला- पुटलु।
घर कहां है बाबू?
जवाब मिला- इल्लीगढढा।
झारखंड के नन्हें शिल्पकार को अचानक देख मुझे सियासी भोंपू से खतियान-भाषा-धर्म और जातिगत समीकरणों की तान छेड़ रहे तथाकथित सियासी रहनुमाओं की याद आ गई।
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साथ ही मैं सियासत के बहुरंगी किरदारों की नैतिकता को धरातल पर टटोलते – टटोलते शर्म शब्द की मानसिक विवेचना में लग गया।
शर्म का एक अर्थ लज्जा,हया, संकोच आदि है, जबकि एक अन्य अर्थ में यह दोष भाव या ग्लानि का आशय देता है।
दोष भाव या ग्लानि क्या नेताओं को भी आता होगा?
यदि ऐसा होता तो 22 साल के हो चुके झारखंड में पुटलु और उस जैसे बच्चे तो न दिखते।
17-18 विधायकों के आंकड़े से झामुमो को 30 विधायकों तक ले जाकर गठबंधन के बूते बहुमत की मजबूत सरकार चला रहे सूबे के मुख्यमंत्री को खतियान-भाषा आदि विवादों में उलझाकर आखिर किसका भला चाहते हैं उनके हमराही?
सियासत जायज़ है किन्तु जन विकासोन्मुखी हो तब. पुटलु और पुटलु सरीखे झारखंड के बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य-उच्च जीवन स्तर की जरूरत है न कि आंदोलन जनित अस्थिरता की।
जिस हाटगम्हरिया-बरायबुरु सड़क को लेकर 2004-05 में निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार बनी थी. उसी सड़क पर 17 साल बाद भी पुटलु व्यवस्था को तमाचा जड़ रहा है।
चाईबासा से हाट गम्हरिया नेशनल हाईवे 75ई की बदहाली, जबकि ओडिशा एवं झारखंड की लौह अयस्क, मैगनीज अयस्क, लाइम स्टोन का परिवहन इसी सड़क से होता है. सड़क की स्थिति बद से बदत्तर हो गई है।
राजनीति और राजस्व दोनों उफान पर है किन्तु अकेला जूझ रहा है पुटलु. क्या पुटलु और उस जैसे अन्य की ओर भी देखेगी सरकार?
बालक पुटलु के उद्यम से इतना तो स्पष्ट दिखा मुझे कि बदलाव की जरूरत व्यवस्था को नहीं, आपके नजरिए को है.क्या सियासी रहनुमाओं का नजरिया पुटलु सरीखे गुम होते बचपन को बचाने का नहीं हो सकता?
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